धनुर्वेद संहिता - डॉ. देवव्रत आचार्य / Dhanurveda Sanhita - Dr. Devavrat Acharya

 धनुर्वेद संहिता - डॉ. देवव्रत आचार्य / Dhanurveda Sanhita - Dr. Devavrat Acharya


वैदिक संस्कृति एवं संस्कृत साहित्य 
Vedic Sanskriti Evam Sanskrit Sahitya


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धनुर्वेद संहिता

पुस्तक का नाम - धनुर्वेद संहिता / Dhanurveda Sanhita
रचयिता - महर्षि वसिष्ठ जी
व्याख्याकार- आचार्य देवव्रत जी
विषय - धनुर्विद्या


पुस्तक के बारे - 


                 युद्ध करने एवं लड़ने की प्रवृत्ति प्राणियों में अनादिकाल से ही चली आ रही है । देशकाल एवं परिस्थिति के अनुसार इसका विकास या ह्रास होता रहा है । मनुष्येतर प्राणियों में यह प्रवृत्ति नख - दन्त और अन्य उपायों द्वारा अपनी रक्षा करने या उदरपूर्ति तक ही सीमित है , परन्तु मनुष्य प्रहार के इन साधनों से विहीन है । उसने अपने बुद्धि - कौशल से विविध शस्त्रास्त्रों का आविष्कार करके न केवल हिंस्त्रप्राणियों से अपनी सुरक्षा की , अपितु विश्व के समस्त जीव - जन्तु तथा अन्य साधनों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया । 

                     शस्त्रास्त्र एवं युद्ध सम्बन्धी ज्ञान - विज्ञान का कथन करनेवाले शास्त्र को धनुर्वेद कहा गया है । ऋषियों ने सृष्टि के आदि में व्यवहार के लिये सभी वस्तुओं के नाम एवं कर्त्तव्य कर्मों का निर्धारण वेद से ही किया । संसार के उपलब्ध साहित्य में वेद सबसे प्राचीनतम हैं । इनका ज्ञान चार ऋषियों के हृदय में परम पिता परमात्मा की प्रेरणा से हुआ । इन चारों वेदों के चार उपवेद हैं । ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद , यजुर्वेद का धनुर्वेद , सामवेद का गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का अर्थवेद ( शिल्पशास्त्र ) सुप्रसिद्ध है । इन उपवेदों में आयुर्वेद के ग्रन्थ चरक , सुश्रुत् प्रभृति , गान्धर्ववेद के भरतनाट्यं इत्यादि और अर्थवेद के मयादि द्वारा विरचित शिल्पशास्त्र के ग्रन्थ , अश्वशास्त्र , सूपशास्त्र , चौंसठ कला इत्यादि के ग्रन्थ अब भी किसी - न - किसी रूप में उपलब्ध हैं , परन्तु धनुर्वेद - सम्बन्धी मूलग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । 


अनेक ऋषियों द्वारा निर्मित धनुर्वेद - 


                 यद्यपि विश्वामित्र , जामदग्न्य , शिव , वशिष्ठादि के नामों से युक्त धनुर्वेद की छोटी पुस्तकें मिलती हैं , परन्तु इनको मूलग्रन्थ स्वीकार करना बहुत ही कठिन है । स्वामी दयानन्दजी ने महर्षि अङ्गिराकृत धनुर्वेद का उल्लेख किया है । आचार्य द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री ने द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित ' धनुष्प्रदीप ' नामक ग्रन्थ का वर्णन किया है जिसमें सात सहस्र श्लोक थे । इसी भाँति वीरवर परशुरामजी द्वारा प्रणीत साठ सहस्र श्लोकवाला धनुश्चन्द्रोदय नामक ग्रन्थ भी विद्यमान था , ऐसी उनकी मान्यता है । परन्तु इन ग्रन्थों का कहीं अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता । जामदग्न्य धनुर्वेद के नाम से कुछ श्लोकों का सङ्कलन अवश्य उपलब्ध है । 

                 महर्षि वैशम्पायनकृत नीतिप्रकाशिका में धनुर्वेद का आदि प्रवक्ता ब्रह्मा को माना है , जिसने एक लाख अध्यायोंवाले धनुर्वेद का उपदेश वेन पुत्र महाराज पृथु को दिया । इसी का संक्षेप करके रुद्र ने पचास हज़ार , इन्द्र ने बारह , प्राचेतस ने छह और बृहस्पति ने तीन हज़ार अध्यायों से युक्त धनुर्वेद का प्रवचन किया । शुक्राचार्य ने उसे और संक्षिप्त करके एक सहस्त्र अध्यायोंवाले नीतिशास्त्र ( शुक्रनीति ) का निर्माण किया । भारद्वाज मुनि ने सात सौ , गौरशिरा ने पाँच सौ , महर्षि वेदव्यास ने उसे भी संक्षिप्त करके तीन सौ अध्यायवाले नीतिशास्त्र को बनाया । महर्षि वैशम्पायन ने उसका भी संक्षेप करके आठ अध्यायवाले शास्त्र का प्रवचन किया । 



अध्ययन परम्परा -


                 पाञ्चरात्रागम सनत्कुमार संहिता के अनुसार भगवान् हरि ने ही समस्त शस्त्रास्त्रों का निर्माण करके उन्हें देवताओं को दिया । भगवान् हरि ने ही धनुर्वेद ब्रह्मा को पढ़ाया । महर्षि ब्रह्मा से क्रमशः शिव , बृहस्पति , इन्द्र , यम , वरुण , कुबेर , ऋषि , देवता , किन्नर , राक्षस इत्यादि ने परम्परा से धनुर्वेद पढ़ा । वीरचिन्तामणि में ब्रह्मा , रुद्र , प्रजापति और विश्वामित्र द्वारा प्रोक्त धनुर्वेद को परशुराम , द्रोण , भीष्म इत्यादि ने पढ़ा , ऐसा माना है । शिव - धनुर्वेद के मतानुसार भगवान् शिव ने सबसे पहले परशुराम को धनुर्वेद का उपदेश दिया । यही मत वाशिष्ठ धनुर्वेद का है । विष्णुधर्मोत्तर पुराण में पुष्कर और राम ( परशुराम ) का संवाद मिलता है जिसमें धनुर्वेद का उल्लेख छह अध्यायों में किया है । इसी भाँति जामदग्न्य धनुर्वेद के भी कुछ उद्धरण मिलते हैं ।
  इन सबका यही निष्कर्ष है कि धनुर्वेद के आचार्यों में परशुराम का विशिष्ट स्थान है ।


आयुधों के प्रकार - 

                             प्राचीन काल में आर्यावर्त देश में धनुर्वेद की छह - सात परम्पराएँ विद्यमान थीं । उनमें तन्त्र प्रधान ( हाथ - पैर द्वारा किये गये ) युद्ध का वर्णन महर्षि वशिष्ठ ने वाशिष्ठ धनुर्वेद में किया है । इसी भाँति धनुष से भिन्न कुन्त , गदा , खड्ग इत्यादि की प्रयोग - विधियों का उल्लेख विश्वामित्र ने , अस्त्रविद्या का जामदग्न्य ( परशुराम ) ने , सञ्जीवनीविद्या का शुक्राचार्य ने औशनस धनुर्वेद में , विद्युत् - शास्त्र का प्रवचन भारद्वाज ने और विविध शस्त्रास्त्रों का वर्णन महर्षि वैशम्पायन ने किया था ।

                धनुर्वेद के मुक्त , अमुक्त , मुक्तामुक्त और मन्त्रमुक्त ये चार पाद हैं । आदान , सन्धान , मोक्षण , विनिवर्तन , स्थान , मुष्टि , प्रयोग , प्रायश्चित्त , मण्डल और रहस्य ये दश अङ्ग हैं । शब्द , स्पर्श , गन्ध , रस , दूर , चल , अदर्शन , पृष्ठ , स्थित , स्थिर , भ्रमण , प्रतिबिम्ब , उद्देश ( ऊपर ) लक्ष्यों पर शरनिपातन करना ( वेध करना ) ये १३ उपाङ्ग हैं । मुक्त और अमुक्त आयुधों की संख्या बत्तीस है । ' उनमें पहले धनुष इत्यादि १२ आयुध मुक्त आयुधों में आते हैं । शेष खड्गादि २० अमुक्त आयुध कहे गये हैं । 

              तीसरे पाद में दण्डचक्र इत्यादि ४४ अस्त्र उपसंहार - सहित गिनाये हैं । उनमें पाँच कंकालादि आसुर अस्त्र मिलकर कुल संख्या ४ ९ हो जाती है । चतुर्थ पाद में विष्णुचक्र , वज्र , ब्रह्मास्त्र इत्यादि , जिनका उपसंहार ( निरोध का उपाय ) ही नहीं है , मन्त्रमुक्त कहलाते हैं । इसी भाँति आकाशभैरव तन्त्रग्रन्थ में भी ३२ और अपराजितपृच्छा में ३६ आयुधों की गणना की है । शस्त्रास्त्रों के साथ व्यूहरचना भी धनुर्वेद के ही अन्तर्गत आती है । 



युद्ध के प्रकार -


                धनुष , चक्र , कुन्त , खड्ग , क्षुरिका , गदा और बाहु द्वारा किया गया - ये युद्ध के सात प्रकार हैं । सात युद्धों के ज्ञाता को आचार्य , चार के ज्ञाता को भार्गव , दो युद्धों को जाननेवाले को योद्धा और एक युद्धवेत्ता को गणक नाम से सम्बोधित किया जाता है । मन्त्रास्त्रों द्वारा किया गया युद्ध दैविक , नालादि ( तोप - बन्दूक ) द्वारा किया आसुर या मायिक और हाथों में शस्त्रास्त्र लेकर किया जानेवाला युद्ध मानव कहलाता है । 


अस्त्रों की भी दिव्य , नाग , मानुष और राक्षस - ये चार प्रजातियाँ हैं ।


 अस्त्र प्रयोग के नियम -


                धर्मयुद्ध में कुटिल - अस्त्र और आग्नेयास्त्रों का प्रयोग निषिद्ध कहा गया है , परन्तु मायायुद्ध और कूटयुद्धों में इनका प्रयोग देखा जाता है । धर्मपूर्वक प्रजापालन , साधुजनों की दुष्ट- दस्यु चौरादि से रक्षा करना ही धनुर्वेद का प्रयोजन है । जिस ग्राम वा नगर में एक भी अच्छा धनुर्धर है वहाँ से शत्रु और दुष्ट मनुष्य इसी भाँति दूर भागते हैं जैसे कि सिंह के सामने से मृग धनुर्वेद से केवल धनुष बाण का ही ग्रहण नहीं किया जाता अपितु धनु शब्द रूढ़ि होकर भी उपलक्षण रूप में चारों प्रकार के आयुधों का ग्रहण करता है । 


धनुष के प्रकार - 


                      धनुष तीन स्थानों पर नत ( झुका हुआ ) शार्ङ्ग , इन्द्रधनुष की भाँति सारा झुका हुआ वैणव ,एक वितस्ति प्रमाण शरों को फेंकनेवाला दो हाथ लम्बा धनुष शस्त्र और दो डोरी बन्धा हुआ पत्थर , मिट्टी की गोली फेंकनेवाला धनुष चाप कहलाता है । 

        इसी भाँति त्रैयम्बक धनुर्वेद में क्रिया के अनुसार योगिक चाप , क्रिया चाप , शलाका , ज्याघात , श्रमिक , सांग्रामिक , दूरपाती , दृढ़भेदी , विकर्षी , कार्यसाधक ये दश भेद धनुष के किये हैं । साढ़े पाँच हाथ लम्बा दैविक , चार हाथ का मानव और साढ़े तीन हाथ परिमाणवाला निकृष्ट धनुष होता है 

धनुष का भार - 
            शास्त्रोक्त धनुष का भार १०० पल होता है । बिना भार के धनुष किसी काम का नहीं होता , अतः धनुष में भार अवश्य होना चाहिये । इसी भाँति दशवें कार्यसाधक धनुष का भार दो सहस्र पल होता है । इसका अभिप्राय है कि इतना भार धनुष की डोरी से लटकाने पर वह ३ फुट नीचे तक जायेगी तब उसकी क्षमता दो सहस्र पल शक्ति होगी । 


धनुष निर्माण कैसे किया जाता है?


                   लोह ( काला लोहा , तांबा , रजत , स्वर्ण आदि ) , सींग और काष्ठ इन तीन द्रव्यों से धनुष का निर्माण किया जाता है । धनुष में पकड़ने की मूँठ , किनारे स्त्री की भ्रूलता के समान क्रमशः पतले , प्रत्यञ्चा अटकाने के लिये कोटि और उछालने की शक्ति - ये गुण होने चाहियें । धनुष की डोरी ( प्रत्यञ्चा ) रेशम के सूत्र से आवेष्टित , हरिण , भैंस और गाय के स्नायु अथवा , बाँस , आक की त्वचा से बनानी चाहिये । इसकी मोटाई कनिष्ठ अंगुली जितनी रखनी उचित है । प्रत्यञ्चा में कहीं पर भी ग्रन्थि रहना उचित नहीं है ।
(पुस्तक की भूमिका से उद्धृत)

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