न्यायदर्शन हिन्दी में /Nyaya Darshan Hindi Me

 न्यायदर्शन /Nyaya Darshan

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न्यायदर्शन / Nyaya Darshan

                      आस्तिक दर्शनों में न्यायदर्शन का प्रमुख स्थान है । वैदिक धर्म के स्वरूप के अनुसन्धान के लिए न्याय की परम उपादेयता है । इसीलिए मनुस्मृति में श्रुत्यनुगामी तर्क की सहायता से ही धर्म के रहस्य को जानने की बात कही गई है । वात्स्यायन ने न्याय को समस्त विद्याओं का प्रदीप कहा है । 'न्याय' का व्यापक अर्थ है- विभिन्न प्रमाणों की सहायता से वस्तुतत्त्व की परीक्षा - प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः । ( वा.न्या.भा .१ / १ / १ ) । 

                    प्रमाणों के स्वरूपवर्णन तथा परीक्षणप्रणाली के व्यावहारिक रूप के प्रकटन के कारण यह न्याय दर्शन के नाम से अभिहित है । न्याय का दूसरा नाम है आन्वीक्षिकी । अर्थात् अन्वीक्षा के द्वारा प्रवर्तित होने वाली विद्या । 

अन्वीक्षा का अर्थ है - 

              प्रत्यक्ष या आगम पर आश्रित अनुमान अथवा प्रत्यक्ष तथा शब्द प्रमाण की सहायता से अवगत विषय का अनु - पश्चात् ईक्षण पर्यालोचन - ज्ञान अर्थात् अनुमिति । अन्वीक्षा के द्वारा प्रवृत्त होने से न्याय विद्या आन्वीक्षिकी है ।

                   भारतीय दर्शन के इतिहास में ग्रन्थसम्पत्ति की दृष्टि से वेदान्त दर्शन को छोड़कर न्यायदर्शन का स्थान सर्वश्रेष्ठ है । विक्रमपूर्व पञ्चमशतक से लेकर आजतक न्यायदर्शन की विमल धारा अबाधगति से प्रवाहित है । न्यायदर्शन के विकास की दो धारायें दृष्टिगोचर होती है । 

प्रथम धारा सूत्रकार गौतम से आरम्भ होती है , जिसे षोडश पदार्थों के यथार्थ निरूपक होने से पदार्थमीमांसात्मक प्रणाली कहते हैं । दूसरी प्रणाली को प्रमाणमीमांसात्मक कहते हैं , जिसे गंगेशोपाध्याय ने 'तत्त्वचिन्तामणि' में प्रवर्तित किया । 

                 प्रथम धारा को 'प्राचीन न्याय' और द्वितीय धारा को 'नव्यन्याय' कहते हैं । प्राचीनन्याय में मुख्य विषय पदार्थमीमांसा और नव्यन्याय में प्रमाणमीमांसा है । न्यायसूत्र के रचयिता का गोत्रनाम गौतम और व्यक्तिगत नाम अक्षपाद है । 

न्यायसूत्र पाँच अध्यायों में विभक्त है जिनमें प्रमाणादि षोडश पदार्थों के उद्देश्य , लक्षण तथा परीक्षण किये गये हैं । वात्स्यायन ने न्यायसूत्रों पर विस्तृत भाष्य लिखा है । इस भाष्य का रचनाकाल विक्रमपूर्व प्रथम शतक माना जाता है ।

 न्यायदर्शन से सम्बद्ध- 

          उद्योतकर का न्यायवार्तिक , वाचस्पति मिश्र की तात्पर्यटीका , जयन्तभटूट की न्यायमञ्जरी , उदयनाचार्य की न्याय - कुसुमाञ्जलि , गंगेश उपाध्याय की तत्त्वचिन्तामणि आदि ग्रन्थ अत्यन्त प्रशस्त एवं लोकप्रिय हैं । 

             न्यायदर्शन षोडश पदार्थों के निरूपण के साथ ही 'ईश्वर' का भी विवेचन करता है । न्यायमत में ईश्वर के अनुग्रह के बिना जीव न तो प्रमेय का यथार्थ ज्ञान पा सकता है और न इस जगत् के दुःखों से ही छुटकारा पाकर मोक्ष पा सकता है । ईश्वर इस जगत् की सृष्टि , पालन तथा संहार करने वाला है । ईश्वर असत् पदार्थों से जगत् की रचना नहीं करता , प्रत्युत परमाणुओं से करता है जो सूक्ष्मतम रूप में सर्वदा विद्यमान रहते हैं । 

              न्यायमत में ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है , उपादान कारण नहीं । ईश्वर जीवमात्र का नियन्ता है , कर्मफल का दाता है तथा सुख - दुःखों का व्यवस्थापक है । उसके नियन्त्रण में रहकर ही जीव अपना कर्म सम्पादन कर जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य प्राप्त करता है । न्यायसूत्र के अनुसार दुःख से अत्यन्त विमोक्ष को 'अपवर्ग ' कहा गया है - ' तदत्यन्त विमोक्षोऽपवर्गः ( न्यायसूत्र ११।२२ ) । 

               मुक्तावस्था में आत्मा अपने विशुद्ध रूप में प्रतिष्ठित और अखिल गुणों से रहित होता है । मुक्तात्मा में सुख का भी अभाव रहता है अतः उस अवस्था में आनन्द की भी प्राप्ति नहीं होती । 

             उद्योतकर के मत में निःश्रेयस के दो भेद हैं अपर निःश्रेयस तथा परनिःश्रेयस । तत्त्वज्ञान ही इन दोनों का कारण है । जीवन्मुक्ति को अपरनिःश्रेयस और विदेहमुक्ति को परनिःश्रेयस कहते हैं ।

                  भारतीय दर्शन - साहित्य को न्यायदर्शन की सबसे अमूल्य देन शास्त्रीय विवेचनात्मक पद्धति है । प्रमाण की विस्तृत व्याख्या तथा विवेचना कर न्याय ने जिन तत्त्वों को खोज निकाला है , उनका उपयोग अन्य दर्शन ने भी कुछ परिवर्तनों के साथ किया है । हेत्वाभासों का सूक्ष्म विवरण देकर न्याय दर्शन ने अनुमान को दोषमुक्त करने का मार्ग प्रशस्त किया है । न्यायदर्शन की तर्कपद्धति श्लाघनीय है । 

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